आज मैं आप सभी को 'महाभारत' के उस ज्ञान के बारे में बताने वाला हूँ, जो कि स्वयं भगवान 'श्री कृष्ण' ने को अर्जुन को दिए थे । गीत सिर्फ हिन्दुओ के लिए नहीं बल्कि समस्त मानव जाती के लिए है, गीत सिर्फ किताब नहीं है बल्कि सही गलत दिखाने का रास्ता है, जिस तरह आप कोई नई मोबाईल, या लाइपटॉप खरीदते है, तो उसमे एक निर्देशक किताब रहता उसे चलाने के लिए उसी प्रकार हम मानव को भी चलने के लिए एक निर्देशक किताब है जिसे श्रीमद भगवद गीत कहते है, जिसमे 18 अध्याय और 700 सलोक है ,
मैं आज महाभारत कि बात कर रहा हूँ, जब अर्जुन ने अपने तात श्री पितमा भिस्म और गुरु द्रोणाचार्य और उनके सगे संबधियों को देख कर अर्जुन कुरुक्षेत्र में मोह में पड़ जाते है । '151 Karma Bhagvad qoutes Gita in hindi' update 2024
'karma bhagvad qoutes gita in hindi' श्री कृष्ण' ने अर्जुन को 700 गीता का ज्ञान क्यों दि थी ।
अर्जुन से श्री कृष्ण ने पूछे क्या देख रहे हो पार्थ, तब अर्जुन ने बताया पिता तुल्या जनों पिता मोह आचर्यों, भाइयो, मित्रों, और पुत्रों को देख रहा हु, केशाव तब 'श्री कृष्ण' ने बताया कि इन्हे देखना क्या है पार्थ।
तुम इन्हे पहली बार तो नहीं देख रहे हो,तब अर्जुन ने बोले हाँ पहली बार तो नहीं देख रहा हूँ,
तब 'श्री कृष्ण' ने बोले कि तब तुम ये भी जानते थे कि अगर युद्ध हुई तब ये सारे सगे संबंधी इस रणभूमि मे किसी ना किसी ओर खड़े अवश्य दिखाई देंगे । तब अर्जुन ने बोले कि क्या जानने और देखने में कोई अंतर नहीं है केशाव।और अर्जुन बोलते है कि हेय केशाव आप मेरा रथ दोनों सेनाओ के बीच ले चलिए, वहा से दोनों सेनाओ को बराबर के दूरी से देखना चाहता हूँ केशाव ।
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और रथ जब दोनों सेनाओ के बीच पहुच जाता है, तब अर्जुन दोनों सेनाओ की ओर देखते है, और बोलते है कि ये दो सेनाए नहीं है, केशव ये तो दो सागर है । और ये बोल कर अपने पितामा अर्जुन से कितना प्यार करते थे उस याद मे सोचने लगते है ।
'श्री कृष्ण' बोलते है इन्हे कब तक देखते रहोगे पर्थ और अर्जुन बोलते है देखने दीजिए केशाव क्या पता इस युद्ध के उपरांत इन मेसे कोन देखने को नहीं मिलेगा, माधव मैं ये किन लोगों से युद्ध करने के लिए आया हूँ, और इस युद्ध मे विजय प्राप्त करने के लिए किन लोगों के प्राण दाव पर लगा रहा हूँ।
दोनों ही और तो एक ही वंस के लोग खड़े है, मैं ये किन लोगों से युद्ध करने आया हूँ । मैं इनसे युद्ध करने आया हूँ, मैं इनके प्राण लेने का प्रत्यं करूंगा, ये सोचने से ही मेरा यंग - यंग शीठिर हुआ जा रहा है, मेरा मुह सूखा जा रहा है, धनुस और वान पकड़ने वाले ये हाथ सुन हुवे जा रहे है,
मेरे शरीर में वो कपकपी के केशाव जो मैं कभी ठनढि के मॉसम मे अनुभव नहीं कि थी। मेरा धनुस मेरा हाथ से गिर जा रहा है, केशाव मैं इन पर वान क्या चलूँगा केशाव जिनके सत्कार के लिए मेरे रोंगटे तक खड़े हो गए हो ।
मैं इस रणभूमि कुरुक्षेत्र को अपने ही वंस कि समसान भूमि नहीं बना सकता, और अर्जुन बोलते है कि आप कुछ कहते क्यों नहीं केशाव ।
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'श्री कृष्ण' बोलते है कि अभी तो मैं सुन रहा हूँ ना पार्थ, पहले तुम कह लो, अर्जुन बोलते है कि कहने को किया है केशाव, मैं अपने कुल के सवो पर अपने राजभवन नहीं खड़ा कर सकता ।
मैं उस राजसुख का क्या करूंगा जिससे भारत वांस का लहू का महक आ रही होगी,
जिन गुरु जनों के चरणों पर सर रखा, उन्ही को काट दूँ, जिससे, इस धनुष पर वान लगाना सिख उसी पर वान चलाऊँ केशाव, मुझे इन मूल्यों पर विजय नहीं चाहिय केशाव - मुझे इन मूल्यों पर विजय नहीं चाहिय केशाव।
धरती का राज तो धरती का राज है, मुझे स्वर्ग का भी राज नहीं चाहिए । फिर अर्जुन बोलते है कि दुर्योधन है तो मेरा ही भाई ना, माना कि वो मेरे साथ कपट किया है,
ये तो बड़े खेद कि बात है कि भूमि कि एक टुकड़े के लिए हमलोग कुलनाशक बनने को हो गए, हे शांति देव यदि सब कुछ खो कर शांति मिले और मैं कुल के नाश के पाप से बच जाऊँ, तो ये शांति बहुत सस्ती है, केशाव ये शांति बहुत सस्ती है । तब भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का ज्ञान यही से देते है ।
'frist slok fo shri krishna' यहाँ से भगवान श्री कृष्ण के द्वारा पहला श्लोक बोल गया ।
भगवान श्री कृष्ण' बोलते है, मेरा नाम लेकर पुकारने से पहले ये बताओ पार्थ इस समय जब विनाश के बादल चारों ओर उमड़ आए है, और धर्म रक्षा और विजय कि आश लिए तुमहारी ओर देख रहा है,
इस संकट कि घड़ी में तुमने कायरता के इन हिन भावो को अपने ह्रदय मे आने कैसे दिया, श्रेष्ट पुरुष तो यू विषाद में डूबा नहीं करते, धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष के इस निर्लयक धड़ी में नपुंसक ना बनो पार्थ- नपुनशक ना बनो।
हेय परन ताप हेय शत्रु संघारक हेय धनंजय तुम्हारे ये भाव अच्छा नहीं है, ये तुम्हें स्वर्ग से गिरा देगी और कीर्ति से भी और तुम स्वयं ही अपने त्रिस्कार का कारण बन जाओगे।
इसलिए हेय पार्थ ह्रदय के इस दुर्बलता को त्यागो और युद्ध के लिए खड़े हो जाओ ।
और अर्जुन बोलते है कि खड़ा कैसे हो जाऊ मधुसूदन- खड़ा कैसे हो जाऊ पितमा के वध करने के लिए कैसे खड़ा हो जाऊ गुरुशेष पर परहार करने के लिए कैसे खड़ा हो जाऊ जो मेरे लिए पूजनिए है, उनसे युद्ध कैसे करू जिन गुरुओ ने मुझे विजय का मंत्र सिखया, उन्हे पराजित करने के लिए कैसे खड़ा हो जाऊ,
इन महापुरुषों पर हाथ उठाने से तो काही अच्छा है कि मैं ये हाथ भिकक्षा के लिए फेलाऊ, भिकक्षा मे मिली हुई रोटी इन महा पुरुषों की रक्त से सनी हुई तो नहीं होगी हेय! ऋषिकेश मैं तो ये भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस युद्ध में विजय श्रेष्ठ है या पराजय, मैं जनता हूँ कि उनका वध कीये बिना जिना संभव नहीं है, किन्तु हेय! केशाव उनका वध करने के बाद भी जीना सहज नहीं होगा, क्या वो मेरा भाई नहीं है, केशाव बोलिए केशाव कृष्ण जी बोलते है अवश्य है । फिर अर्जुन बोलते है कि केवल इतना ही कहना है आपको फिर कृष्ण जी बोलते है तुमने केवल आहि पूछा था पार्थ ।
और कृष्ण जी, बोलते है किन्तु ये युद्ध संबंधों और नातों को स्थापना और नातो कि पहचान के लिए नहीं है, कुंती पुत्र, अपने कर्तव्य को पहचानो और तब निर्लय लो, कियोकी निर्लय तो तुमही को लेना पड़ेगा यदि तुम ये चाहते हो कि निर्लय मैं लूँ । और तुम इस युद्ध के उतरदाइत्व से बच जाओ, तो ये नहीं होगा पार्थ कदापि नहीं होगा क्योंकि ये युद्ध भी तुम्हारा है, और इस युद्ध का परिणाम भी तुम्हारा ही होगा ।
अर्जुन बोलते मुझे कर्तव्य का मार्ग ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है, केशाव इस लिए हेय ! वासुदेव आप मेरे आत्मा का भी सारथी बन जाइए, मैं जनता हूँ कि मैं धर्म और अधर्म के बीच खड़ा हूँ, किन्तु ये निर्लय नहीं ले पा रहा हूँ , कि धर्म किस ओर है और अधर्म किस ओर मेरा मार्ग दर्शन कीजिए केशाव इंदरियों को सूखा देने वाले शोक से बचने का मार्ग दिखलाइए मुझे,
अपने इस मानसिक अवस्था में तो मैं युद्ध नहीं कर सकता गोविद, गोविंद मैं युद्ध नहीं कर सकता ।
नहीं हो सकता गोविंदम - नहीं हो सकता गोविंदम । ये बोलकर चुप हो गए अर्जुन ।
'20 best quotes of shrimad bhagavat gita' श्री कृष्ण द्वारा दि गई महत्वपूर्ण ज्ञान
अर्जून को एसा बोलने पर कृष्ण जी मुसकुराते हुवे बोले हाँ पार्थ जो चले गए वो तो चले गए, और ज्ञानी तो ना जाने वाले का शोक करते है और ना ही उनका जो नहीं गए वे तो ना विगध के लिए शोक करे और ना अगध के लिए ।
2) तुम्हारी सेली तो ज्ञानियों की ही है, किन्तु बात तुम मूर्खों जैसी कर रहे हो ।
3) शोक करने से पहले ये तो देखो की तुम जिनके लिए शोक कर रहे हो वे तो शोक के योग्य ही नहीं है ।
4) मूल तत्व शरीर नहीं आत्मा है और मृत्यु उसका अंत भी नहीं है, कियोकी उसकी यात्रा तो अनंत है,
मृत्यु तो केवल एक पड़ाव है पार्थ केवल एक पड़ाव साँस का अंत पवन का अंत नहीं है, एसा समझो पार्थ कि पराणी तो पहले बालक होता है फिर ओ बालक युवा हो जाता है फिर वृद्ध और फिर मृत्यु, किन्तु ये यात्रा तो शरीर कि है,
आत्मा तो इससे भी आगे जाता है, वो एक शरीर को त्याग कर किसी और शरीर धारण कर लेता है,
इसलिए जो यात्रा मृत्यु पर समाप्त हो जाए वो तो केवल शरीर की यात्रा है पार्थ केवल शरीर कि यात्रा है ।
5 ) आत्मा का यात्रा तो अनंत है पार्थ और उसकी यात्रा के एक बिन्दु पर शरीर पीछे छूट जाता है , और यात्री आगे निकाल जाता है, और ओ बिल्कुल वैसे ही कोई नया शरीर पहन लेता है, जैसे हम पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र पहन लेते है ।
6 ) हेय! पार्थ विनाश तो आत्मा को छु ही नहीं सकता, तो फिर शोक कैसा और किसके विनाश का क्या ! वस्त्र का विनाश का किन्तु वस्त्र तो अमर नहीं होता वो तो त्यागे जाने के लिए ही होता है, और आत्मा मारता नहीं, कभी नहीं मारता ।
7) अर्जुन बोलते है कि वे जो सामने खड़े है वे इस युद्ध के बाद सब के सब होंगे ना केशाव - सब के सब होंगे ना
फिर कृष्ण जी मुसकुराते हुवे बोलते है ये होना और ना होना क्या है पार्थ क्योंकि वो समय तो कभी था ही नहीं जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे या ये सारे लोग नहीं थे और नहीं वो समय कभी होगा जब मैं नहीं हूँगा या तुम नहीं होंगे या ये सारे लोग भी नहीं होंगे,
तब फिर ये तुम किस भ्रम मैं पड़ रहे हो पार्थ की वर्तमान जीवन ही सम्पूर्ण जीवन है वर्तमान जीवन सम्पूर्ण जीवन नहीं है पार्थ,
हम थे भी हम हैं भी और हम होंगे भी अब रहे ये सुख - दु:ख ये तो ऋतुयों की पाँति है आते जाते रहते है ।
हेय कुंती पुत्र जो सुख -और दु:ख दोनों को ही समान समझे और उनसे प्रभावित हुवे बिना ही झेल जाए वही स्थितिप्रज्ञ है और वही मोक्ष का अधिकारी भी है।
8) हेय भारत मारने या मरने के आसंक से मुक्त हो जाओ, क्योंकि मृत्यु तो केवल उसी कि हो सकती है ना जिसका जन्म हुआ हो ।
9) आत्मा तो कालातीत है काल से भी प्रे है पार्थ जन्म तो जीव का होता है आत्मा का नहीं और यदि आत्मा जन्म ही नहीं लेता तो उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है, आत्मा तो बस है पार्थ वो काल के दोनों तटों पर भी है और काल के धारा में भी ,
वो आजन्म है नित्य है सनातन है आविकारी है आविनाशी है, इसलिए मारने या मरने प्रशन को लेकर चिंतित होना वेयर्थ है पार्थ वेयर्थ है ।
10) मुत्यु तो केवल शरीर कि होती है, और उसकी मृत्यु के पश्चात भी आत्मा नहीं मरता क्योंकि शस्त्र उसे काट नहीं सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता, और वायु उसे सूखा नहीं सकती ।
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11)अब किस चिंता में हो पार्थ फिर अर्जुन बोलते है कि क्या मैं केवल आत्मा को पितमा कहता हूँ वो जो स्वेत वस्त्र वाले वृद्ध योद्धा आमने अपने रथ पे खड़े है क्या केवल वो आत्मा है क्या उनके वो शरीर ने जिसे आप आत्मा का वस्त्र कह रहे है, अनेक बार मेरे शिस पर आशीर्वाद देने के लिए हाथ नहीं धरा था, क्या वो वृद्ध ब्राहमण श्रेष्ठ केवल एक आत्मा है जिन्होंने मुझे धनुर विदिया सिखाई है,
केशाव मैं आत्मा के नित्य होने पुरातन होने अभिनाशी होने को नहीं ना करता, पर जिन शरीरों कि मैं बात कर रहा हूँ वो शरीर भी तो मेरे कुछ लगते है ना,
12)आत्मा तो जन्म नहीं लेता केशाव आत्मा तो जन्म नहीं लेता किन्तु लोग तो जन्म लेते है केशाव, लोग तो जन्म लेते है, फिर कृष्ण जी बोलते है हाँ लोग जन्म तो अवश्य लेते है पार्थ किन्तु इस तर्क को आगे बढ़ाओ महाबाहु तनिक आगे बढ़ाओ जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु तो निश्चित है, तो निश्चित का शोक क्यों ।
13) जन्म लेने वाले को एक ना एक दिन तो मरना ही है, और ये मृत्यु भी अंत नहीं है, क्योंकि मरने वाला फिर जन्म भी लेगा, ये तो एक अटल सत्य है पार्थ और इस अटल सत्य को कोई टाल भी नहीं सकता, ना तुम और ना मैं ना कोई और
14) गंगा पुत्र भीष्म के पास तो ईक्ष मृत्यु का वरदान है, किन्तु मृत्यु तो फिर भी अटल है ना पार्थ तो जन्म मृत्यु और फिर जन्म के शृंगखला में शोक का स्थान कहा है, कहा हेय शोक स्थान ।
15) जिन लोगों को तुम समने खड़ा देख रहे हो ना पार्थ वो इस जन्म से पहले भी थे, पर क्या थे ये तुम नहीं नहीं जानते हो वो इस जन्म के उपरांत भी होंगे पर क्या होंगे ये भी तुम नहीं जानते,
उनका अस्तित्व तो इस जन्म और मरन के दो बिन्दुओ के इधर - या उधर है ही नहीं और यदि है भी या अगयात है, आवेयकत है, आर्थत इस जन्म से पूर्व भी तुम्हारे लिए नहीं थे पार्थ और इस जन्म के उपरांत भी नहीं होंगे,
तो हेय पार्थ जिनके जीवन का अनिवार्य अंत ही मृत्यु हो और उनके जीवन के अनिवार्य अंत को ना तुम टाल सकते हो और ना ही बदल सकते हो फिर शोक कहे का, और शोक क्यों,
ये पितामह ये गुरुजन ये सगे संबंधी इनमेसे किसी को भी तुम इस जन्म से पूर्व भी नहीं जानते थे और ना ही इस जन्म के बाद जानोगे, तब तो फिर इनके लिए शोक करना व्यर्थ होगा ना पार्थ व्यर्थ होगा ।
15) इसमे आश्चर्य की क्या बात है पार्थ जैसे फटना वस्त्र की अंतिम सत्य ठेहरा है वैसे ही मृत्यु शरीर का अंतिम सत्य है, तो फिर सत्य का शोक क्यों ।
16) मनुष्य शरीर और आत्मा नसवर और आणस्वर का मिश्रण नहीं है, शरीर तो केवल आत्मा का साधन है इसलिए शरीर के चिनता मे पड़े बिना ही अपने धर्म का पालन करते रहना चाहिए पार्थ ।
किन्तु यदि तुम क्षत्रिय धर्म के विषय मे सोच रहे हो पार्थ तब भी तुम्हें युद्ध ही करना चाहिए क्योंकि आधर्म की विरुद्ध शस्त्र उठान ही क्षत्रिय का धर्म है, और आज आधर्म धर्म के विरुद्ध शस्त्र लिए सामने खड़ा है इस लिए हेय पार्थ अपने क्षत्रियधर्म का पालन करो।
17) अर्जुन बोलते है की हेय केशाव आपसे यही पूछने तो मैं आपको यहा लाया हूँ, की मेरा कर्तव्य क्या है, की मेरा धर्म क्या है केशाव कृष्ण जी बोलते है की स्वम तुम कोण हो पार्थ ,
अर्जुन बोलते है की द्रोणा शिष्य अर्जुन हूँ और मैं कुंती पुत्र अर्जुन हूँ और मैं क्षत्रिय हूँ केशाव कृष्ण जी बोलते हैं की यदि तुम क्षत्रिय ना रहे होते तो द्रोणा शिष्य भी ना हुवे होते और हेय कोणते कुंती पुत्र होने के नाते भी क्षत्रिय ही हो, तो तुम्हारी तीनों पहचाने क्षत्रिय पहचाने है,
इसलिए क्षत्रिय धर्म ही तुम्हारा धर्म है उस धर्म का पालन करो आधर्म के विरोध शस्त्र उठान ही क्षत्रिय धर्म है, अनन्य और आनीति के विरोध शस्त्र उठान ही क्षत्रिय धर्म है, और यदि इस निर्लयक घड़ी में
तुमने सत्य के पछ मे आसत्य के विरोध में शस्त्र नहीं उठाए पार्थ तो तुम्हारे धर्म के साथ - साथ तुम्हारे उज्ज्वल कृति भी नस्ट हो जाएगी,और यदि एसा हुआ पार्थ तो केवल तुम्हारे विरोधी ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज तुम्हें कलंकित कापुरुष कहेगा और आने वाली पीढ़िया कायर और पापी मानेगी,
इसलिए हेय महाबाहु विजय और पराजय जीवन और मृत्यु सुख और दु: ख के प्रशनो में न उलझो और युद्ध करो यदि तूमहारी इस युद्ध में वियज हुई तो दुनिया का राज और यस भोगोगे और यदि तुम वीरगति को प्राप्त हुवे तब भी यस के साथ - साथ स्वर्ग पावोगे ।
इसलिए हेय कोणते उठो सुख - दु:ख लाभ - सनी , विजय - पराजय सबको समान समझो और युद्ध करो की यही तुम्हारा क्षत्रिय कर्तव्य भी है और मानव धर्म भी ।
Conclusion:- आज की समय में हम लोग बाहरी चुनौतियों और समस्याओं से जूझ रहे हैं आज के समय में हमें कर्म भागवत गीता बहुत ही जरूरी होता है पढ़ने के लिए।
जो कि भगवान श्री कृष्ण के द्वारा कर्म योग के बारे में भागवत गीता में बताया गया है जिसे हम सभी मनुष्य को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए जिससे जिससे हमें सही कम करने पर फोकस करती है, हमें यह सिखाती है भगवत गीता की बाहरी परिस्थितियों चाहे जैसे भी हो हमें हर परिस्थिति में सही कम करना चाहिए, ओके पूरा कर्म का फल भी बुरा ही होता है इसलिए हमें सही कम करना चाहिए और सही कर्म का फल भगवान के ऊपर छोड़ देना चाहिए।